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जौनपुर:जिले की 9 विधानसभा सीटों में से पांच सीटों पर रहेगीं निगाहें।Don News Express

जिले की 9 विधानसभा सीटों में से पांच सीटों पर रहेगीं निगाहें, जफराबाद, शाहगंज, सदर,बदलापुर के किले को फतह करने के लिए जुटे दिग्गज
धनंजय, लकी,जगदीशनारायण, ललई,नदीम,गिरीश की साख लगी दांव पर
जातिगत समीकरण के दम पर मतदाताओं को आकर्षित करने में जुटे दिग्गज नेता
सै.हसनैन कमर दीपू
जौनपुर। जिले की 9 विधानसभा सीटों पर 7 मार्च को मतदान होना है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ साथ कई निर्दल प्रत्याशी इस बार भी विधानसभा में पहुंचने का  सपना देखते हुए मैदान में ताल ठोंकते हुए उतर गये हैं। सोमवार को चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा सभी को अपने अपने चुनाव चिन्ह भी आवंटित करा दिये गये हैं। सभी 9 विधानसभा सीटों की अगर बात की जाये तो इस बार हर जगह मुकाबला दिलचस्प होता हुआ दिखाई पड़ रहा है। जहां समाजवादी पार्टी 2012 की साख के साथ मैदान में उतरती हुई दिखाई पड़ रही है तो वहीं भाजपा भी 2017 की ऐतिहासिक जीत को बचाने के लिए अपने अपने प्रत्याशियों पर दांव लगाकर बैठी है। तो बसपा व कांग्रेस भी दो दो हाथ करने को इन दलों से बेताब नजर आ रहा है। सबसे दिलचस्प लड़ाई जिले की पांच सीटों पर दिखाई पड़ रही है। जिसमें प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता अपनी साख बचाने के लिए बेताब नजर आ रहे हैं। प्रदेश ही नहीं देश में सुर्खियों में रहने वाली मल्हनी विधानसभा सीट की अगर बात की जाये तो इस सीट पर जहां पूर्व कैबिनेट मंत्री स्व.पारसनाथ यादव के पुत्र लकी यादव उपचुनाव में जीत के बाद इस सीट को बचाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं तो वहीं 2002 से अपनी राजनीतिक पारी की शुरूआत करने वाले पूर्व सांसद धनंजय सिंह उनके लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। 2020 के उपचुनाव में मामूली वोटों से धनंजय सिंह को हार का सामना करना पड़ा था तब से वे निर्दल प्रत्याशी के रूप में भाग्य आजमा रहे थे लेकिन इस बार केंद्र के घटक दल जनता दल यू से वे चुनाव मैदान में उतरे हैं तो वहीं भाजपा ने अपने पूर्व सांसद डॉ.केपी सिंह पर दांव लगाकर मुकाबला दिलचस्प कर दिया है। बसपा व कांग्रेस प्रत्याशी भी मैदान में सभी से लोहा लेने को तैयार बैठे हैं। सदर सीट की अगर बात की जाये तो 2012 में कांग्रेस को तीन दशक बाद सीट दिलाने वाले राष्ट्रीय नेता नदीम जावेद लगातार तीसरी बार चुनाव लड़ रहे हैं उनके सामने भाजपा व प्रदेश सरकार के राज्यमंत्री गिरीशचंद्र यादव एक बार फिर अपनी रणनीति के साथ दो दो हाथ करते हुए नजर आयेगें। तो समाजवादी पार्टी ने 1992 में बसपा-सपा गठबंधन के टिकट पर चुनाव लड़ चुके अरशद खान अपने पुराने अनुभव व दमखम के साथ मैदान में उतर चुके हैं। अखिलेश यादव के नये रूप व तेवर को देखते हुए जहां बीजेपी हैरान व परेशान है तो वहीं कांग्रेस भी जातिगत समीकरण को तोड़ने के लिए बेताब नजर आ रही है। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र होने के नाते जहां अरशद खान को अपने मतदाता को आकर्षित करने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ रही तो वहीं बसपा के युवा उम्मीदवार सलीम खान भी भाजपा सपा व कांग्रेस की नींद हराम किये हुए हैं। दलित वोट बैंक के सहारे बसपा हमेशा से अन्य जातिगत समीकरणों को लेकर अपने प्रत्याशियों को मैदान में उतारती है। इसी के चलते ही उसने भी सलीम खान पर आखिरी दांव लगाकर सभी को हैरान कर दिया। सलीम खान बीते एक दशक से बसपा से जुड़े हैं हलांकि बीच में उनकी पत्नी नगर पालिका परिषद जौनपुर से चेयरमैन का चुनाव निषाद पार्टी से लड़ चुकी थी लेकिन पुन: पार्टी में वापसी के बाद वे भी विधानसभा में पहुंचने के लिए दो दो हाथ करने में नजर आ रहे हैं। भाजपा के अगर गिरीश्चंद्र यादव की बात की जाये तो अपने लंबे राजनीतिक अनुभव व संगठन के चलते धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं उनके ऊपर जहां अपनी सीट बचाने का दबाव है तो वहीं सपा के घोषित उम्मीदवार तेज बहादुर मौर्य के टिकट कटने से मौर्य समाज को अपनी ओर आकर्षित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। अपने बेस वोट के दम पर भाजपा इस सीट को बचाने के लिए हर एक दांव खेलने को तैयार है क्योंकि इस सीट पर भाजपा ने 2002 में सुरेंद्र प्रताप सिंह को विजय बनाने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। 2007 व 2012 में उसे हार का सामना करना पड़ा था लेकिन 2017 में पार्टी ने ओबीसी कार्ड खेला और गिरीशचंद्र यादव को अपना उम्मीदवार बनाया जिसके बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता को सपा गठबंधन के बावजदू करारी शिकस्त देने का काम किया। शाहगंज सीट पर अगर बात की जाये तो यहां पर दो दशक से सपा का दबदबा बना हुआ है। खासतौर पर 2012 में नये परिसीमन में यह सीट  सामान्य हुई तो इसपर शैलेंद्र यादव ललई लगातार जीतते नजर आए हुए हैं। इस बार भी पार्टी ने उनपर ही दांव लगाया है। 2012 में विधायक बनने के बाद सपा की अखिलेश सरकार में वे ऊर्जा राज्यमंत्री भी रह चुके हैं। उनके सामने भाजपा ने अपने गठबंधन निषाद पार्टी से रमेश सिंह को मैदान में उतारा है। रमेश सिंह प्रतापगढ़ के पूर्व सांसद कुंवर हरिबंश सिंह के पुत्र हैं और वे खुटहन ब्लॉक के प्रमुख भी रह चुके हैं। हाल में हुए जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव में उनकी पत्नी को निर्दल प्रत्याशी धनंजय सिंह की पत्नी श्रीकला सिंह ने करारी शिकस्त देकर अपने राजनीतिक रसूख व नीति का लोहा मनवा चुके हैं। इस हार से सबक लेने के बाद रमेश सिंह ने शाहगंज विधानसभा सीट की तैयारी शुरू कर दी थी और सपा के इस गढ़ में सेंध लगाकर किला फतह करने के लिए भाजपा के साथ पूरा संगठन लगा हुआ है। वहीं कभी सपा के नेता के करीबी रहे इंद्रदेव यादव इस बार बसपा की हाथी पर सवार होकर शैलेंद्र यादव ललई व रमेश सिंह को टक्कर देने के लिए मैदान में उतर चुके हैं। दलित वोट बैंक के साथ साथ मुस्लिम यादव व अन्य जातियों को जोड़ने के लिए वे लगातार क्षेत्र का दौरा कर रहे हैं तो वहीं कांग्रेस ने भी दशकों बाद इस सीट पर मुस्लिम कार्ड खेलते हुए परवेज आलम भुट्टो को अपना उम्मीदवार बनाकर सभी की नींद हराम कर दी। सपा जहां मुस्लिम वोट बैंक के चलते शाहगंज सीट पर अपना दबदबा बनाती हुई चली आ रही है तो वहीं परवेज आलम भुट्टो वोट बैंक में सेंध लगाने को बेताब नजर आ रहे हैं। बदलापुर सीट की अगर बात की जाये तो यहां सपा व भाजपा ने अपने दोनों पुराने ब्रााहृण चेहरे पर दांव लगाया है तो वहीं बसपा व कांग्रेस ने क्षत्रिय प्रत्याशी उतारकर सियासी समीकरण बिगाड़ दिया है। भाजपा के टिकट पर पहली बार विधायक बने रमेश चंद्र मिश्रा अपने इस किले को बचाने के लिए संगठन के साथ लगातार दौरा व मंथन कर रहे हैं तो वहीं अपनी सरकार की उपलब्धियों के बीच ब्रााहृणों को आकर्षित करने में जुटे हैं तो वहीं भाजपा के वोट बैंक के साथ साथ अन्य जातियों के साथ जोड़ने में एक बार फिर जुट गये हैं। उनको टक्कर देने के लिए सपा से 2012 मंे विधायक रहे ओम प्रकाश दूबे बाबा अपनी 2017 की पराजय का बदला लेने के लिए दिन रात मेहनत करते हुए नजर आ रहे है। ब्रााहृणों की राजनीति करने के साथ साथ समाज के हर वर्ग को जोड़ते हुए मुस्लिम वोट बैंक के सहारे वे एक बार पुन: विधानसभा पहुंचने का रास्ता तैयार कर रहे हैं। बसपा की अगर बात की जाये तो उन्होंने मनोज सिंह सोमवंशी को अपना टिकट देकर सभी से लोहा लेने के लिए मैदान में उतार दिया है। पिछली बार इस सीट पर लालजी यादव चुनाव लड़े थे और वे दूसरे नंबर पर थे ऐसे में पार्टी ने इस बार क्षत्रिय कार्ड खेलते हुए मनोज सिंह पर अपना दांव लगाया है तो वहीं कांग्रेस ने भी पूर्व सांसद व जिले के कद्दावर नेता रहे स्व.कमला प्रसाद सिंह की पुत्र वधु आरती सिंह को मैदान में उतारा है। युवा चेहरा होने के नाते जहां महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपने पुर्खों की विरासत को आगे बढ़ा रहीं हैं तो वहीं क्षत्रियों के साथ साथ अन्य जातियों के मतदाताओं को अपनी पार्टी की ओर आकर्षित करने के लिए रणनीति बनाये बैठी हैं। जफराबाद विधानसभा सीट की बात की जाये तो हमेशा से पूर्व कैबिनेट मंत्री जदीश नारायण का गढ़ माना जाता रहा है हलांकि 2012 में इस सीट पर सपा के शचींद्रनाथ त्रिपाठी चुनाव जीतने में सफल हुए थे। तो 2017 में बसपा ने जगदीशनारायण राय को टिकट न देकर ब्रााहृण कार्ड खेलते हुए अपना प्रत्याशी उतारा था जिसका सीधा फायदा भाजपा के डॉ.हरंेंद्र प्रताप सिंह को मिला था और वे विधानसभा पहंुचने में कामयाब हो गये थे। इस बार भी उन्हें पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया है लेकिन सपा भासपा गठबंधन के तहत जगदीशनारायण राय एक बार फिर मैदान में उतर चुके हैं। अपने पुराने अनुभव व सियासी समीकरण के चलते जगदीशनारायण राय भाजपा के साथ साथ बसपा व कांग्रेस के लिए सिर दर्द बने हुए है। बसपा ने पुन: इस सीट पर ब्रााहृणकार्ड खेलते हुए संतोष मिश्रा का अपना प्रत्याशी घाषित किया है तो वहीं कांग्रेस ने अपने पुराने नेता तिलकधारी निषाद की पुत्रवधु लक्ष्मी नागर को टिकट देकर लड़की हूं लड़ सकती हूं नारे को चरितार्थ करने के लिए भेजा है। ऐसे में जिले की इन पंाच विधानसभा सीटों पर न सिर्फ जिले की बल्कि पूरे प्रदेश की निगाहें टिकी हुर्इं है। 7 मार्च को मतदान के बाद जब 10 मार्च कोे वोटों की गिनती होगी तभी इस बात का फैसला हो जायेगा कि किसकी रणनीति कारगर साबित हुई वही अपने क्षेत्र का बाजीगर कहलायेगा।

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