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प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप का कमाल निजी चिकित्सकों के लिए आयुष्मान भारत योजना इस तरह बनी कामधेनु।Don News Express

प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप का कमाल
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निजी चिकित्सकों के लिए आयुष्मान भारत योजना इस तरह बनी कामधेनु
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जौनपुर। जिले में आयुष्मान भारत योजना में प्राइवेट रूपी चाकी के दो पाटों के बीच मटर सरीखे पिस रही पब्लिक। पांच साल पूर्व तक जिले में पांच अस्पताल नामित थे जो अब लगभग एक दर्जन हो गए हैं।जनपद में औसतन 60 हजार कार्डधारक हैं जो गरीबी रेखा से नीचे माने गए। ये हाल प्रदेश भर का है । जौनपुर के एक अस्पताल की बानगी देखिए, लुम्बिनी-दुद्धी मार्ग के जिस अस्पताल का लेखाजोखा पिछली कड़ी में था उसकी साढ़े तीन दर्जन गरीब मरीजों वाली फ़ाइल की जांच हुई तो उसमें दो दर्जन से अधिक मरीजों से भी पैसा लिया जाना पाया गया। यानी चित भी अपनी, पट भी अपनी। हर कार्डधारक को सरकार की तरफ से पांच लाख तक का मुफ्त इलाज मिलता है। सरकार ने भी कार्डधारकों की संख्या और मानक के मद्देनजर इसका टेंडर निकाल कर उस व्यक्ति को ठेका दे दिया जिसने कम खर्च में बेहतर इलाज का प्रस्ताव भरा। उसने मॉनिटरिंग के लिए लखनऊ में एक विशेषज्ञ रख दिया। अब उसके जरिए जिले के करीब एक दर्जन अस्पतालों को गरीबों के इलाज का अधिकार मिल गया। सरकार ने अपनी तरफ से मॉनिटरिंग को सीएमओ ऑफिस में एक स्वास्थ्य अधिकारी और प्रशासन की तरफ से एक अधिकारी को अधिकृत किया। यहां समस्या ये नहीं है कि मरीजों से क्यों पैसा लिया। दरअसल गरीबों के खून के हर कतरे में सबकी बराबर की हिस्सेदारी न होने पर फाइल फंस जाती है। सच तो यह भी है कि आंख बंद करके पैसा गरीब ही देता है , वह सोचता है मुफ्त के इलाज में थोड़ा देने से और अच्छा इलाज होगा। कई इनमें भी सयाने होते हैं जो फ़र्जी ढंग से इलाज के नाम पर पैसा कमाने से पीछे नहीं हटते। यहां के आधा दर्जन अस्पतालों में यही खेल चल रहा है। जिस अस्पताल का खास जिक्र है उसके यहां इंश्योरेंस, हेल्थ बीमा के भी मरीजों का कार्ड होता है। खुद मेरा स्वास्थ्य बीमा कार्ड 15 लाख का था तब मैं दूसरे अखबार में था। मेरे वेतन से इसकी कटौती होती थी हर महीने। अच्छा हुआ मुझे कभी जरूरत नहीं पड़ी।
इस अस्पताल के बिल में सामान्य मरीजों से हर दिन 300 रुपये चिकित्सक विशेषज्ञ राउंड खर्च, 150 रुपये नर्सिंग, 100 रुपये डाइटीशियन, 55 रुपये ग्लब्स और दवा का रेट तो इन दिनों मिलने वाली सब्जी सरीखा रहता है। उसकी कम्पनी में दवा बनती कम है रैपर चढ़ाकर उसे अपना प्रॉडक्ट मानकर मरीजों को परोसी जाती है। इसी रास्ते पर और भी हैं।
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प्रसूता महिलाओं के साथ ऐसे होता है खेल,,,,,
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डिलीवरी को गर्भवती महिला भर्ती हुई तो उसका ऑपरेशन शर्तिया होना है अन्यथा कमाई नहीं हो पाएगी। कमोबेस यह स्थिति 50 फीसदी से ज्यादा निजी अस्पतालों में है। सरकारी अस्पतालों से मरीज मंगाने के लिए पेड दलाल काम करते हैं। पैसा उड़ रहा है, उसे पकड़ने के लिए तमाम निजी अस्पताल संचालकों ने कम्पा लगा रखा है। आमजन को तरह तरह के ऑफर दिए जा रहे । लगता है ये अस्पताल नहीं मॉल शॉप हो गए हैं। जिन मरीजों के पास पैसा नहीं होता है उनकी शहर के नजदीक की जमीन सम्बंधित चिकित्सक बैनामा कर लेता है। इस तरह ये भू-माफ़िया में भी शुमार हैं। नेता, पुलिस, पत्रकार अधिकारीआदि के रेफरेंस से आने वाले मरीजों के बिल में छोड़ी जाने वाली रकम पहले ही बढ़ा दी जाती है या मरीज वाराणसी को रेफर हो जाता है। इन्हीं में से कई ऐसे हैं जो दबंगों के कुत्ते का इलाज करने घरों तक पहुंचते हैं मानो ये पशु चिकित्सा भी जानते हों। जिन अफसरों से इनका विवादित काम कराना होता है उनके आवासों पर सुबह एमआर से मिली तौलिया, हैंडवाश आदि लेकर हाजिर रहते हैं। जब वह अफ़सर शीशे में उतर जाता है तब उसे पैसे के साथ अय्याशी के समान भी उपलब्ध कराने से नहीं चूकते। यानी गरीबों के खून का कतरा बहुतों के काम आता है। लेकिन अफ़सर के तबादला होते ही उसपर लाखों, करोड़ों लेकर चंपत होने  का इल्जाम शहर की जुबान वाली दीवारों पर चस्पा होने लगती है ऐसा अन्य प्रोफेशनल के साथ भी किया जाता है।

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